शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं

डॉ विष्णु सक्सेना की एक कविता......

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा, एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं।
तुमने पत्थर सा दिल हमको कह तो दिया पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं।
    मैं तो पतझर था फिर क्यूँ निमंत्रण दिया
    ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुये,
    आस मन में लिये प्यास तन में लिये
    कब शरद आयी पल्लू समेटे हुये,
तुमने फेरीं निगाहें अँधेरा हुआ, ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं।
    मैं तो होली मना लूँगा सच मानिये
    तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो,
    मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा
    तुम मुझे मेरे पँखों को आकाश दो,
उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम, यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं।
    आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी लगी
    बन्द की आँख तो राधिका तुम लगीं,
    जब भी सोचा तुम्हें शांत एकांत में
    मीरा बाई सी एक साधिका तुम लगी
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो, मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।

प्रस्तुतकर्ता - मनोज कुमार शर्मा 

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

मेरी ही कहानी है


डॉ कुमार विश्वास की एक और कविता याद आ गयी:

चमन में सबने ही गया तराना जिन्दगी का,
मगर अलग था रंग मेरी ही कहानी का,
तराना इस कदर रंगीन था मेरी ही जुबानी का,
कि जिसने भी सुना कहने लगा मेरी ही कहानी है.

मुझमें क्या है सिवा तुम्हारे


डॉ कुमार विश्वास की एक कविता : मुझमें क्या है सिवा तुम्हारे

"टी वी वाले पूछ रहे हैंक्या छोड़ोगे नए साल में?
उधर सुना है अमरीका मेंऐसा कुछ रिवाज़ है शायद,
नए साल में खुद ही खुद कुछ, अपने में से कम करने का,
मैं क्या छोडू समझ नहीं पाया हूँ अब तकमुझमें क्या है सिवा तुम्हारे?
और तुम्हें कम कर दूँ तो फिरकहाँ बचूँगा नए साल में ......?"