मंगलवार, 3 अगस्त 2010

डा. कुंवर बेचैन

उंगलियाँ थाम के  खुद चलना  सिखाया था जिसे,
राह मे छोड़ गया राह पे लाया था जिसे

उसने पोंछे ही नहीं आंसू मेरी आँखों से
मैने खुद रो के बहुत देर हँसाया था जिसे

बस उसी दिन से खफा है मेरा वो एक चेहरा
धूप मैं आईना एक रोज दिखाया था जिसे

छू के होंठो को मेरे वो भी कहीं दूर गयी
एक ग़ज़ल शौक से जिसे गाया था मैने

दे गया घाव वो ऐसे की भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैने लगाया था जिसे

होश आया तो हुआ यह कि एक दुश्मन याद फिर आने लगा
कि मैने भुलाया था जिसे

वो बड़ा क्या हुआ सिर पर ही चढ़ जाता है
अपने कंधे पे "कुंवर" हंस के बिठाया था जिसे.

                                                             - Dr. Kunwar Baichain

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